अमृत रस
अमृत रस
न पुष्प, न फल, न बिल्वा
न मदार पुष्प की माला…
लोटे में लेकर सिर्फ़ जल
कैसे चढाऊँ शिवलिंग पर पानी
मन में उठी एक ग्लानि ।
शिव रूठ तो नहीं जाएँगे
मन में नही समाएँगे
भक्ति क्या मेरी हो जाएगी कम
यह सोच आँखें हो गई नम।
तभी अंतरमन से आयी एक आवाज़
शिव तो करते हैं सबको स्वीकार
मन का भाव है उनको सबसे प्यारा
चाहे हो वह मीठा या खारा।
हैं वह दया का अनन्त सागर
चरणों में अर्पित कर, अपने कर्मो का गागर
हो जाओ हर दुविधा से तुम खाली।
कुछ नहीं तो बंद कर आख़ बैठो बस
और हृदय में उतरने दो शिव तत्त्व कि अमृत रस।
सृष्टि सिंह
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