समय

बहने दो समय को 

पानी की तरह,

जाने दो समय को 

कहानी की तरह। 

 रुके ,  झुके 

बहती अनंत काल से 

एक धारा ऐसी। 

 पता 

आयी कहाँ से

होगी कहाँ खत्म। 

इसलिए जियो हर समय 

ऐसे जैसे 

जीत लिए हो इसे  हम। 

 

सृष्टि सिंह 

 





राहे

 

राहे तो हैं बहुत

पर है मुझे एक ही प्यारा

गुजरे जहाँ से हों साँवरे,

नटखटनंद के लाला

जहां बिखरे हो कदम्ब के फूल

पड़े जिधर हों कान्हा के चरण

उसी मिट्टी परछू कर वही धूल,

राह वही चलूँ

बिना करे कोई भूल

सृष्टि सिंह


 

 

यादें

 

लहर बन कर कभी आतीं,

कभी बन जातीं हैं भँवर

यादों के पीछे जब,

आता कुछ कुछ नज़र

टीमटिमा जाती आँखे

बहते झरने सुबह शाम

बसयाद आने की होती देर

लूट लेती मन का आराम

हैं तो बड़ी प्यारी 

वो यादें...

छोटी-मोटी बातों की

और कुछ पुराने वायदे की

पर यादें ...कयूँ मुझे सताती हो

ऐसे क्यूँ रुलाती हो,

यादेंजो हैं मेरी अपनीमेरी प्यारी

अतीत को जोड़ती मेरे आज से

मेरी भूली बिसरी सखीमेरी दुलारी। 


सृष्टि सिंह


 

 

 

 

चाँद तेरी चाँदनियाँ

 

चाँद तेरी चाँदनियाँ

इतना मुझे क्यूँ लुभाती

बादलों से लुका छुपी खेल कर,

मेरे आँगन जब आती

छलक कर गिरती जब यमुना की लहरों में,

लेकर हज़ारों टिमटिमाते तारे साथ,

वृंदावन में लाती ख़ुशियों की बारात

मगन होकर झूम उठते वहाँ के सारे वासी

चाँद तेरी चाँदनियाँमिटाती सबकी उदासी

तेरी चाँदनी में किया होगा कान्हा ने भी स्नान,

शीतल किरणो में तेरीगाए होंगे अनोखे गान

यमुना के तीरबजी होगी बंसी मधुर,

गायीं होंगी गोपियाँकोई अदभुत सुर

चाँद आने  दे मुझमें कोई सवाल,

वही शीतल किरण तू अब मुझ पर भी डाल

चाँद तेरी चाँदनियाँ...

है साँवरे की याद दिलाती

इसीलिए तू मुझे भाती

इसीलिए तू मुझे लुभाती


@सृष्टि सिंह

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सुबह 

 

थोड़ा व्ययाम, 

छोड़ कर आराम,

मुद्रा योगा के कुछ, 

छुड़ा दे जो बुद्धि तुच्छ

 

चिड़ियों की चहक से,

फूलों की महक से,

जिह्वा पर हो प्रभु 

ऐसे सबकी हो सुबह शुरू। 

 

सृष्टि सिंह

 



 

गुलाब

पंखुडिया गुलाब की खिल गयीं 

खुशबू गुलाबी हवा में मिल गयी। 

माटी पर जा गिरा जब वह फूल,

वीर सैनानी की जहाँ पड़ी थी धुल। 

सृष्टि सिंह

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

#10 DaysPoetry andProse Challenge

# Day 6

#विषय - अनुराग

 

अनुराग 

पृथ्वी खोजती वह सुराग

जिससे फैले हर दिशा अनुराग। 

सूरजचाँद और हैं  तारे अनेक,

पर धरती माँ तो है सिर्फ एक। 

दिया जिसने सबको जीवन दान 

धन दौलतखान पान। 

रहते  क्यों द्वेष में  पृथ्वी वासी,

फैलाते हर तरफ उदासी ?

पुकारे माँ बार बार... 

छोड़ अब राग द्वेष के द्वार। 

फैलाओ अनुराग चारो ओर ,

मचे सिर्फ खुशियो का शोर। 

सृष्टि  सिंह 

 

 

 

 

 

 

 

 

#Day7

 

नमो शारदा  

 

कर हंस की सवारी 

वीणा हाथो में तान 

आयी माँ शारदा 

बाटने ज्ञान। 

 

लेकर ऋतू बसंत साथ 

 मिटाने अंधकार,

 शुक्ल वर्ण देवी,

कुन्द पुष्पस्फटिक  माला

पुस्तक लेकर हाथ। 

 

खिल उठी बगिया सारी 

खिल गया संसार,

दूर हुए जैसे ही जड़ता और अज्ञान

हर तरफ घुला मधुर गीत,

माँ शारदा का जब मिला वरदान। 

 

 

सृष्टि सिंह 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


नारी

इतनी सूंदर छवि तुम्हारी 

हर रूप में लगती नयारी 

तुम दुर्गाक्षमास्वधासरवती 

आगे बढ़तीलेकर अपनी गति। 

राह फूल बिछे हो या हो अंगारे 

 कमल की तरह खिलती ,

महकती  जैसे बहारें। 

हर तूफ़ान पार करती मुस्कुराते 

दामन में भर कर अनेको  तारे। 

लेकर सुनहरे कल की उम्मीद,

आखों में प्यार का दीद 

छलकती प्यारी। 

नारी

 इतनी सूंदर छवि तुम्हारी 

हर ररूप में लगती नयारी। 

 

सृष्टि सिंह 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अभिलाषा 

गूंजे वह संगीत हर दिशा  ,

जिसमे हो एकता की भाषा 

ऐसी मेरी अभिलाषा। 

सुबह लाये संग अलौकिक  आशा 

लेकर नूतन उमीदों की तरंग,

ह्रदय में  हो किसी को कोई निराशा 

ऐसी मेरी अभिलाषा। 

 

सृष्टि सिंह 

 

 

 

 

 

 

 






पवन 

 

पवन ऐसी  बहे  मेरे द्वार,

लेकर  आये  खुशियाँ आपार। 

पूर्वपश्चिमउत्तर या हो दक्षिण दिशा,

लेकर आये  सुनहरे दिनभीनी निशा। 

 

जब चले  चाल मस्तानी,

झूमे सारे , छोड़ कर ग्लानि  

आये  जब गुर्राती वो,

जागे जग मैजो रहे हो सो। 

 

इठलातीझूमती रहती घूमती,

थल और गगन को चूमती। 

जहाँ मिले पुष्पसुगन्धित करती संसार,

झूमती सृष्टि सारीसंग तेरे बारम्बार। 

 

 दिखे कभीपर दिलाती एहसास

भेद  करे किसी सेजाती सबके पास। 

झंकृत करे जो ह्रदय के तार,

पवन ऐसी बहे मेरे द्वार। 

 

सृष्टी सिंह

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

काल चक्र

काल चक्र ऐसे गया घूम
मच गयी  चारों तरफ धूम।
नाचता  आया मेरी ओर 
मचाता  प्रलय घनघोर 

क्या मुझे वह खा जाएगा?
अस्तित्व इसमें मेरा समा जाएगा?
या रहेगा मुझसे परे...
देखती रही मैं खड़े खड़े।

काल चक्र रहा घूमता
ब्रह्माण्ड को चूमता।
काँप रहा था अम्बर
लग रहा था सबको डर।

छू  पाया मुझे एक भी पल
 देख पाया मुझमें कोई छल

एक तिनका भी  हिला पाया

जहां था हरि का साया

 

सृष्टि सिंह

 

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