मेरी खिड़की के बाहर की दुनिया



 मेरी खिड़की के बाहर की दुनिया 


मेरी खिड़की के बाहर की दुनिया 

है इतनी विशाल 

ऐसी जगह खुलती वह 

हैं न वहाँ  दिवार य किवाड़। 


जहाँ ऊँची  पहाड़ी मे पक्षी गाते 

चहकते, ठीठलाते,

समुद्र की लहरें के साथ खेलतीं 

झोके हवा के खिलखिलाते। 


दिन भरा रहता सुनहरी धूप से 

रात्रि चन्द्रमा की शीतलता से अपार 

टिमटिमाते तारे ज्योति जलाते अनेक 

आरती में जैसे देव रहे हो माथा टेक। 


लेकर जाती खिड़की वहाँ 

जहाँ मेरी तरह के हैं लोग  अनेक 

भेष भूषा चाहे उनकी हो जुदा,

परन्तु भीतर सभी  के  है लौ एक।


 

@  Shristee Singh 

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